मि उत्तराखँडी छौ - यू शब्द ही अपणा आप ये ब्लाग क बारा मा बताणा कुण काफी छन। अपणी बोलि/भाषा(गढवाली/कुमाऊँनी) मा आप कुछ लिखण चाणा छवा त चलो दग्ड्या बणीक ये सफर मा साथ निभौला। अपणी संस्कृति क दगड जुडना क वास्ता हम तै अपण भाषा/बोलि से प्यार करनु चैंद। ह्वे जाओ तैयार अब हमर दगड .....अगर आप चाहणा छन त जरुर मितै बतैन अर मि आप तै शामिल करि दयूल ये ब्लाग का लेखक का रुप मा। आप क राय /प्रतिक्रिया/टिप्पणी की भी दरकार च ताकि हम अपणी भासा/बोलि क दगड प्रेम औरो ते भी सिखोला!! - प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल
गुरुवार, 3 जून 2010
म्यार पहाड एक गीत व कुछ चित्र उत्तराखंड बटि
म्यार पहाड एक गीत चित्रो के साथ (अपनी बोलि अर अपणी भाषा क दग्डी प्रेम करल्या त अपणी संस्कृति क दगड जुडना मा आसानी होली)
सोमवार, 31 मई 2010
यु छ मेरु, ऊ छ तेरू
यु छ मेरु, ऊ छ तेरू
द्वीयोंमा पुडयु झमेलु..!
बिच बचाण गै छ मीता
बणिग्यो ईन जन पिचक्यु गन्देलू
क्या मिललू और क्या ह्वे जालु ?
द्वेष छोडीक प्रेम अपनालू !
भोल कु क्वी पता नी छ लाटू..
पल भर मा पतानी क्या ह्वे जालू !!
ईक बुनू छौ मी छौ बडू..
हैकु बुनू छौ मी नीछ छुटटू !
सभी मनखी एक समान ..
पैसो पर छ क्या भरोशू ? !!
बीच बचोव मा अब नी जौलु !
युं झगडो सी दुर ही रौलु..
अहकार मा स्यो-बाघ बन्या छन
यों बाघो सी मै खये जौलु
"कत्का सुन्दर होली दुनिया
जु मिली जुली क राय
छोडी ईर्श्या, लालस, मनसा
प्रेम कु बाठु अपनाय"...
विनोद जेठुडी
(अपनी बोलि अर अपणी भाषा क दग्डी प्रेम करल्या त अपणी संस्कृति क दगड जुडना मा आसानी होली)
अभी बची च आस
बहुत सोचि मीला, अर इन जणना की कोशिश करि की हम उत्तराखंडी भै बैणा किलै समाज मा सामूहिक रुप मा छाप नी छोडि सकणा छंवा जब्कि सब एकला चलो की राह पर चलणा छन।
सकारत्मक सोच त सभी रखदिन पर नकरात्मक छवि हमरी ज्यादा प्रमुख च समाज मा। सबसे बडू कारण हम खुद ही छंवा। यीं कविता मा कुछ भाव उभरिक ऎन जूं ते मीला तीन भाग मा ल्याखि -1. उत्तराखंडी किलै छन अलग[नकारात्मक] 2. हम क्या छंवा करणा आज 3. जू प्रशन उठिन वा मा हम क्या करि सकदा और अंत मा एक आस।
[ कै भी रुप मा यू वक्तिगत या समूह कुण नी छन या कै पर व्यंग्य नी चा बस एक सकारात्मक सोच ते बढावा दीण कु एक प्रयास च अर सबी भै बैणा अगर एक ह्वे कन सुचला त हम अपणा उत्तराखंड का वास्ता व्यापक रुप मा सह्योग दे सकदा]
~~~~अभी बची च आस ~~~~
1. उत्तराखंडी किलै छन अलग [नकारात्मक]
पुंगडी - डांडी, गोर - बछरा, नदी - छोया सब बिसरी गैना
पापी पेट अर उज्जवल भविष्य कि खातिर सब छोडी गैना
देव भूमि च छुट्टु सी हमर उत्तराखंड
फिर भी करणा छंवा हम यांका खंड खंड
क्वी च गढवली अर क्वी च कुमाऊँनी
जग मा बुलद ज्या मा हमते शर्म च औंदी
नामे की रैंदि बस सब्य़ु ते दरकार
नी ल्याओ त सब्यू ते चढदू बुखार
सुचणु रेंदु, कै की मौ कन मा फुकुलू
मवसी अपणी कन मा यां से बणोलू
जख मा ह्वे जैले मेरी खाणी पीणी
वैतेई ही मीना बस अपणू जाणी
2. हम क्या छंवा करणा आज
अपणी बोलि/भासा मी बोल नी सकदू
फिर भी एक हैका टांग मी खिचणू रेंदू।
राज्यो मा बणेयेनि हमूला अब उत्तराखंड
हर राज्यो मा भी छन कतना उत्तराखंड
विदेश मा भी बण गीन बिज्यां उत्तराखंड
हर देश मा भी छन अब द्वी-द्वी उत्तराखंड
बुल्दिन मी अर म्यार काम च असली
दुसरा छन जु वू सब छन नकली
संस्कृ्ति का छंवा हम ही केवल पैरेदार
एक दुसरा ते तुडना मा नी लंगादा देर
मी छौ बडू म्यार छी बडा कनेक्शन
लडना रंदिन जन हूणा हवालो ईलेक्शन
3. जू प्रशन उठिन वा मा हम क्या करि सकदा
राजनीति केवल नेताओ ते करणा दयावा
वू ते सबक सिखाणा सब एक ह्वेई जावा
अपनी भासा अर बोलि जरुर तुम जाणा
संस्कृति अपणी की असलियत तुम पछाणा
एक अर एक द्वी ना,बल्कि ग्यारह तुम ह्वे जाओ
उत्तराखंड ते अपणो खंड - खंड नी हूणी दयाओ
देव भूमि कूं विकासा का विचार तुम राखा
कन पलायन रुकला यांकि सोच तुम राखा
अपणा उत्तराखंड क भविष्य की बात जब ह्वेली
शिक्षा बिजली पाणी अर सडक गौं-गौं मा जैली
रैला दगडी दगड्यो अर करल्या कुछ काम
बुलणु नी प्वाडलो कैतेई फिर अफि होंदु नाम
खाणी पीणी ना केवल,मिलन मा करया तुम खास बात
हर कार्य मा अपणी ना, उत्तराखंड की करयां तुम बात
...अंत मा एक आस
उत्तराखंड मा च देवी - दिबतो कु वास
खंड नी हूणी दूयला अभी बची च आस
- प्रतिबिम्ब बड्थ्वाल , अबु धाबी
(अपनी बोलि अर अपणी भाषा क दग्डी प्रेम करल्या त अपणी संस्कृति क दगड जुडना मा आसानी होली)
रविवार, 30 मई 2010
" कच्ची ( दारु ) "
( सूर्य अस्त /पहाड़ मस्त॥ स्वर्गीय कबी गुरुदेब कन्हया लाल डंडरियाल जी की कबिता " चा " से प्रेरित होकर )
" कच्ची ( दारु ) "
कच्ची भवानी इस्ट च मेरी
दिलम बस्दा, बस क़चि वा
एक तुराक जख्मी मिलजा
मंदिर मिखुणि ब्ख्मै चा
सुधनी मीथै अपणा बिरण की
याद नि औंदी मी कै की ...
स्वीणम बीणम रटना रैंदा
दगड्ओ मीथै, बस कचिकी
बच्यु छो, मी कच्ची पीणाकु
मुरुणच मिन, कच्ची पेकी !
मुरुणु बैठ्लू मुगदानो की तब
बाछी नि लाणी खोजिकी
हथपर दिया दगड्ओ मेरा
बोतल बस एक कच्ची की !!
गिचम म्यारो घी नि धुल्णु
धुल्या , पैली तुराक भटी का
हबन कनी चितामा मेरी
पैलू पैलू कनस्तर कची का !
सटी लगया ना छुरक्यु मेरी
ख्ल्या रस्तोमा बोतल कच्ची की
अर उकै कदमा रवा सांग मेरी
ज़ोकी दूकान ह्वी कच्ची की !
लास मेरी मडघट माँ दगड्यो
ली जैया ना तुम भूलीकी
फुक्या मीथै कै रोंला / गदाना
जख गंघ आणीहो कच्ची की !
चिताका चोछड़ी मडवे म्यारा
बिठाली उ , क़चि दीणा
किरय्म मारू वी बैठला
बैठी जैल, दिनभर क़चि पिणा !
एक द्शादीन कटुडया आलू
कटुडम वे थै भी क़चि देल्या
दवा दशाका दिन बमणू थै भी
कची पीलोंण तस्लोला !
कची बणी ह्व़ा सुंदर सी
अर गंध आणि हो जैमा
एक गिलास म्यारा सिरोंदो
धैरिदिया तुम मीकु खाँदै माँ
- पराशर गौर
मई २९ दिन्म ३ ४५ पर २०१०
(अपनी बोलि अर अपणी भाषा क दग्डी प्रेम करल्या त अपणी संस्कृति क दगड जुडना मा आसानी होली)
सदस्यता लें
संदेश (Atom)