शनिवार, 8 दिसंबर 2012

ब्योला गधम ....

( ये कबिता मेरी और स्वर्गीय डंडरियाल जी के बीच की थी संन 1974 के बात है हम किसी शादी में थे मैंने उनसे एक सवाल किया था )
घोड़ीम चडदै ब्योला डंडरियाल जी मिन ब्वाला हो जी गुरूजी ज़रा इनै आवदी दिलम च एक शंका अईकी जरा वी मिटावादी !
उन बोली "हाँ " बवालों बवालों क्या च सवाल ख्वालो ?
मयारू सवाल सूणा हो घ्वाड्म किलै चड्द सजधजी ब्योला गधम क्यों नि बैठद !
उन बोली ---- हाँ बुना त तुम ठीक छा अर हुण भी एनी चैन्द एक काम कैद्वा अगल्य साल तुम्हारा नौनो ब्यो च आप ही रीती थै बदल द्यावा एक गधा थै हनका गधम बैठे दयवा !
 -------- पाराशर गौर


(अपनी बोलि अर अपणी भाषा क दग्डी प्रेम करल्या त अपणी संस्कृति क दगड जुडना मा आसानी होली) एक गड्वाली हास्य कविता रीत बदला ! 

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